ऊधम सिंह नगर

“रामसुमेर शुक्ला’ को तराई का संस्थापक बताना जनता का अपमानः बेहड़ – असल नींव रखने वाले लोगों गुमनामी में धकेलने का हो रहा प्रयास

सौरभ गंगवार/टुडे हिंदुस्तान 

रुद्रपुर। तराई की पहचान और उसके इतिहास से छेड़छाड़ पर कांग्रेस विधायक तिलक राज बेहड़ ने तीखी आपत्ति जताई है। उन्होंने साफ कहा कि तराई के संस्थापक के रूप में पंडित राम सुमेर शुक्ला का नाम प्रचारित करना न सिर्फ भ्रामक है, बल्कि उन हजारों परिवारों का खुला अपमान भी है, जिन्होंने जंगल काटकर इस धरती को बसाने में अपनी पीढ़ियां खपा दीं।

बेहड़ ने याद दिलाया कि देश की आज़ादी के बाद पंडित गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में तराई क्षेत्र का पुनर्वास शुरू हुआ। वर्ष 1956 से 1961 के बीच विभाजन की मार झेल चुके करीब 20,000 पंजाबी सिख परिवारों को यहां बसाया गया। उन्हें 10-10 और 15-15 एकड़ जमीनें आवंटित की गईं पश्चिमी यूपी, पूर्वी यूपी, थारू, बुक्सा और पहाड़ी समाज के लोग भी बसावट की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया में शामिल रहे उन्होंने ही अपने खून-पसीने से तराई को आबाद किया।

बेहड़ ने तीखे लहजे में कहा कि जिन लोगों ने खेत बनाए, जंगल काटे, अपने हाथों से यहां जीवन बसाया उनके योगदान को भुलाकर किसी एक व्यक्ति को संस्थापक बताना सरासर गलत है और जनता का अपमान है। रामसुमेर शुक्ला स्वतंत्रता सेनानी थे, हम उनका सम्मान करते हैं, पर उन्हें तराई का संस्थापक बताने का खेल बंद होना चाहिए।

उन्होंने बताया कि तराई बसावट की असली नींव पंडित गोविंद बल्लभ पंत, मेजर एच.एस. संधू, ए.एन. झा, के.बी. भाटिया, पंडित लक्ष्मणदत्त भट्ट और खान बहादुर सरवत यार खान जैसे लोगों ने रखी। वर्ष 1946 में ‘तराईदृभाबर कमेटी’ बनाई गई थी, जिसके प्रमुख पंडित पंत थे। बाद में रामसुमेर शुक्ला को देखरेख की ज़िम्मेदारी दी गई, जहाँ अन्य कई महत्वपूर्ण लोग भी शामिल थे।

बेहड़ ने कहा कि 1950-60 के दशक में तराई के कृषि विस्तार और पुनर्वास को गति देने में मेजर संधू और ए.एन. झा की निर्णायक भूमिका रही। पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना और अमेरिकी लैंड-ग्रांट मॉडल की साझेदारी ने क्षेत्र की कृषि को वैज्ञानिक आधार दिया, जिसके दस्तावेज 1963 की कृषि रूपांतरण रिपोर्ट और पंतनगर विश्वविद्यालय के अभिलेखों में स्पष्ट दर्ज हैं।

बेहड़ का आरोप है कि तराई बसावट की कहानी को जानबूझकर तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। उन्होंने कहा आज जिस तराई की पहचान खेती-किसानी में देशभर में है, उसकी असल नींव रखने वाले लोग गुमनामी में धकेले जा रहे हैं। विस्थापित परिवारों को जमीनें मिलीं, उन्होंने परिश्रम किया, जबकि कई बड़े लोगों ने तो हजारों एकड़ पर फार्म दर्ज करा लिए लेकिन असली बसाहट करने वालों का नाम तक नहीं लिया जा रहा यह किसी भी रूप में बर्दाश्त योग्य नहीं है। बेहड़ ने दो टूक कहा कि इतिहास के साथ खिलवाड़ बंद होना चाहिए और तराई के असली निर्माताओं को उनका सम्मान लौटाया जाना ही अब समय की ज़रूरत है।।

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