ऊधम सिंह नगर

दिखावे और आधुनिकतावाद की विचारधारा ही प्रकृति के विनाश कारण। आलोक प्रताप सिंह

सौरभ गंगवार

रुद्रपुर। दिखावे और आधुनिकतावाद की विचारधारा ही प्रकृति के विनाश कारण है। प्रकृति और मानव के बीच चल रहा संघर्ष अब अपने उच्चतम स्तर पर जा पहुंचा है, आधुनिकता की चकाचौंध में मानव सभ्यता अब इतनी अंधी होती जा रही है कि उसे समझ नहीं आ रहा की प्रकृति का दोहन वह किस रफ्तार से कर रही है। जरा सोच कर देखिए कि हमें प्रकृति द्वारा मुफ्त में क्या उपलब्ध है हवा, पानी, वातावरण, वायुमंडल और सबसे प्रमुख यह पृथ्वी। इन प्राकृतिक चीजों के उपलब्ध न होने से क्या मानव सभ्यता का विकास संभव था? जैसे-जैसे सभ्यताओं का विकास होता गया मानवों ने प्रकृति का दोहन समानांतर रूप से शुरू रखा, प्रकृति का सबसे ज्यादा दोहन औद्योगिक क्रांति के उद्भव के बाद 15वी और 16वीं शताब्दी से शुरू हुआ और लगातार चलता जा रहा है। विकास और आधुनिकता के नाम पर पृथ्वी के श्रृंगार कहे जाने वाले वृक्षों को काटा जा रहा है, खेती के नाम पर जंगल को काटकर उपजाऊ जमीन बनाई जा रही है, कहीं अगर उद्योग के लिए फैक्ट्री लगानी है तो भी जंगल को काटकर लगाया जा रहा है, बैलगाड़ी से उतरकर मानव अब ईंधन की गाड़ियों और वायुयान में सफर कर रहा है जिसमें पृथ्वी के अंदर पड़े ईंधन का प्रयोग खनन द्वारा किया जा रहा है, पृथ्वी के अंदर पड़े जलस्तर का दिनों दिन कम होना भविष्य में जल संकट होने का चिक-चिक कर पुख्ता प्रमाण दे रहा है, मानव ने आधुनिकता के नाम पर सड़कों, पुलों और बड़े-बड़े बिल्डिंगों का निर्माण तो किया पर शर्त यह रखी की वायु,जल और वातावरण साफ सुथरा नहीं मिलेगा।

हम किस तरफ जा रहे हैं? क्या हमें अभी भी समझ में नहीं आ रहा है? अभी जल्दी ही हम कोरोना नामक एक वैश्विक महामारी से उबरकर बाहर निकले हैं जिसमें न जाने कितनी मृत्यु केवल ऑक्सीजन की कमी से हो गई। लोगों ने लाखों करोड़ों खर्च कर दिए एक ऑक्सीजन का सिलेंडर खरीदने में जो हमें प्रकृति द्वारा मुफ्त में मिलती है केवल इस शर्त पर की वृक्षों को संजो कर रखना है। यह अमेरिका और ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति से शुरू हुआ प्रकृति के दोहन का सफर अब भारत जैसे संस्कृतवादी, सभ्यतावादी और पर्यावरणवादी देश में भी तेजी से फैला और आगे भी अग्रसर है। हम अपनी मूल विचारधारा से दूर होते जा रहे हैं, हमारे पूर्वजों ने हमें सिखाया था कि पेड़ों की पूजा करो उनकी सुरक्षा करो, पहाड़ों को सुसज्जित और संरक्षित रखो ताकि उससे उद्धव होने वाली नदियां संरक्षित रहे। बरगद की पूजा करो, पीपल की पूजा करो, तुलसी की पूजा करो, पहाड़ पूजो, प्रकृति से जुड़े रहो। हमारे वेदों और शास्त्रों तक में प्रकृति को ईश्वर का रूप माना है। लेकिन हम आधुनिक विचारधारा और झूठे विकास के कायाकल्प में इतने अंधे होते जा रहे हैं कि हम प्रकृति के साथ धीरे-धीरे मनुष्यता को भी नष्ट करते जा रहे हैं। दिखावे का दौरा ऐसा पनपा है कि अब लोग शोक में पेड़ों को काटकर उनकी लड़कियों का प्रयोग घर में फर्नीचर लगाने के लिए कर रहे हैं, एक परिवार में एक व्यक्ति के पास अब तीन-तीन, चार-चार गाड़ियां हो गई हैं, साइकिल और पैदल चलना लगभग लोग भूल गए हैं जिससे सबसे बड़ा नुकसान स्वास्थ्य और प्रकृति को हो रहा है। फायदा केवल औद्योगिक वर्ग और उसमें बैठा एक सबसे बड़ा वर्ग जो कि डॉक्टरों का है, उन्हें हो रहा है। और फायदा हो भी क्यों ना जहां 91% लोग आज किसी न किसी रूप में प्रदूषण का शिकार है। दिल की बीमारियां बढ़ी है, छोटे-छोटे बच्चों तक को अस्थमा की शिकायत हो रही है।

यह एक बहुत भयावह संदेश है मानव जाति को पृथ्वी को सबसे बड़ा खतरा ग्लोबल वार्मिंग से है, वर्तमान में यह पूरे विश्व के समक्ष बड़ी समस्या के रूप में उभर रहा है, ग्रीनहाउस गैसों के स्तर में वृद्धि होने के कारण वातावरण गर्म हो रहा है। आधुनिकतावाद और दिखावे की प्रवृत्ति ने अंधाधुंध विकास के होड़ में एक ऐसी विचारधारा को जन्म दे दिया है जिससे एक व्यापक सोच उत्पन्न हुई है कि अगर हम प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे तो विकास संभव नहीं है। यह कैसी मूर्खतापूर्ण सोच और विचारधारा है, मतलब जीस पृथ्वी, प्रकृति में हम रह रहे हैं, उसे नुकसान पहुंचा कर विकास कैसे संभव हैं। जिस अमेरिका और ब्रिटेन को आधुनिकतावाद का जनक कहा गया था अब वहां के बड़े शहरों जैसे न्यूयॉर्क वॉशिंगटन न्यू जर्सी लंदन जैसे बड़े शहरों के साथ कस्बे भी ध्वनि प्रदूषण वायु प्रदूषण आज से ग्रसित हैं। दूर मत जाइए अपने भारत की राजधानी दिल्ली और महानगर मुंबई की हालत कितनी बिगड़ गई है वायु प्रदूषण से वैज्ञानिकों ने शोध करके यह बहुत पहले ही बता दिया है कि पर्यावरण की गड़बड़ी से मनः स्थिति को गड़बड़ाने की व्याख्या सोशल साइंस रिसर्च इंस्टीट्यूट सदन कैलिफोर्निया ने कर दिया है।

उनके अनुसार वातावरण की विकृति से चेतन स्तर पर तनाव पैदा होता है साथ ही अवचेतन के पासविक संस्कारों को उद्दीपित भी करती है, तदानुरूप ही दुर्भावनाएं और दूरविचार पनपते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधानों से जो नतीजे सामने आए हैं उनसे यह भी पता चलता है कि पर्यावरण की प्रदूषण स्थिति मन में गड़बड़ी पैदा करने प्राणों में उत्तेजना लाने तथा व्यवहार को हिंसक बनाने तक सीमित नहीं है, यह जेनेटिक्स के विशेषज्ञों ने बताया कि अपराध की प्रवृति व्यक्ति के गुण सूत्रों तथा जींस में परिवर्तन लाने वाली सिद्ध होती हैं। कितना गहरा और व्यापक असर होता जा रहा है मानव पर वातावरण का इसे बेडौल और कुरूप करने का मतलब है अपने को बेडौल और कुरूप बना लेना। प्रकृति का दोहन और उससे लूट खसोट का मतलब है अपने आधार को ही समाप्त कर लेना। अब हमें उचित कदम उठाना ही पड़ेगा प्रकृति को संरक्षित करने के लिए यह जिम्मेदारी सबसे ज्यादा मानवों की है क्योंकि विश्व वसुधा पर रहने वाले मानव ही बुद्धिजीवी कहलाते हैं उन्हें ही आचरण और व्यवहार में नैतिक मूल्यों का अवलोकन करना आता है इसका पहला कदम यही है कि स्थान और परिस्थिति के अनुसार प्रकृति का संरक्षण करें उसे प्रदूषित होने नष्ट होने से रोक कर उसे बढ़ाने में सहायता करें। भारतीय दर्शन शास्त्रों और चिंतन में प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता माना गया है। इसके अनुसार मनुष्य जाति इससे सहयोग का व्यवहार करें और प्रशन्न बनी रहे। जब हम प्रकृति का सहयोग करेंगे तो प्रकृति हमारा भी सहयोग करेगी। यही वह मार्ग है जिस पर चलकर पशुता की ओर जा रही मानव जाति देवत्व की ओर बढ़ेगी।।

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